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About Durga Sewa Samiti
Our Commitment to Helping Those in Need
Durga Sewa Samiti is a non-governmental organization committed to helping individuals and communities facing economic, social, educational or health-related challenges. We believe that every person deserves access to the basic necessities of life, including food, shelter, education, and healthcare. Our organization has been involved in a wide range of events and initiatives, from providing food and shelter to those who are homeless to organizing medical camps and blood donation drives. We are proud to say that our organization is recognized by the government and is exempted under 80G, tax act 1961. Together, let's embark on a journey of compassion and impact, lending a helping hand to those in need. We humbly request your esteemed presence in joining our collective efforts as we ardently endeavor to transform lives, one profound act of kindness at a time. Your gracious involvement will contribute to the creation of a world brimming with boundless hope and abundant opportunities.
Our Vission
We envision a world where everyone has access to basic necessities and opportunities for growth and development. Our goal is to create a more equitable society where everyone can thrive, regardless of their circumstances.
Our Mission
At Durga Sewa Samiti, our mission is to provide support and assistance to individuals and communities facing economic, social, educational, or health-related challenges. We are committed to making a positive impact and helping those in need.
Our Values
Our values of compassion, service, and community guide everything we do. We aim to make a positive impact on the world by showing empathy towards others, providing selfless service, and building strong communities.
Join Our Journey to Create a Better World for All
Experience our journey towards a better world. View our events and galleries showcasing the impact of our work.
Our Impact : Changing Lives, Building Communities
Together, We Can Make a Difference
Healthcare
Organized medical camps and blood donation drives to help save lives
Assistance
Providing Food and Shelter for Homeless Individuals and Families.
Empowerment
Empowering Women and Girls through Skill-Building and Mentorship.
Relief
Contributed to disaster relief efforts to support communities affected by natural disasters.
Our Story : The History of Durga Sewa Samiti
Empowering Communities, Changing Lives, and Making a Difference Since 2021
– : श्री गणेशाय नम : –
:- ऊँ ऐं हीं श्रीं श्री महाकाली सिद्धेश्वरी स्वाहा :-
माँ सिद्धेश्वरी दुर्गा मन्दिर (तिलौली)
विकिपिडिया
सिद्धेश्वरी, इच्छार्तिनाषिनी, महामाया, योगमाया-माँ दुर्गा के परोपकारी स्वरूप का नाम है। उनकी पहचान पराम्बा आदिशक्ति के रूप में हैः
सिद्धेश्वरी नाम से स्थापित माता के मन्दिरः-
(अ) समीपस्थ राज्य बिहार मेंः-
1. BELAUR
2. TIKRI-SIWAN
3. सीतामढ़ी-धकौल,।
4. बेलौना, नवादा।
5. मोतीपुर, मुजफ्फरपुर।
(ब) पश्चिम बंगालंः-
1. NARINDRAPUR दक्षिण टोला W.B -24 PARGNA
2. मिदनापुर
(स) बांग्ला देश :– सिद्धेश्वरी काली मन्दिर ढ़ाका 14 सिद्धेश्वरी लेन।
(द) उत्तर प्रदेश :-
1. PRAYAGRAJ सिविल लाइन्स रोडवेज
2. NANHUL
3. अलीगढ़-तलवार सिद्धेश्वरी मन्दिर।
4. कानपुर नगर
5. तिलौली-देवरिया-274601
तिलौलीः- विष्व प्रसिद्ध गणतन्त्र देष ‘‘भारतवर्ष’’ के ‘उत्तर प्रदेष’ राज्य के देवरिया जनपद मुख्यालय से 28 कि0मी0 दक्षिण पूर्व, लोक पावनी ‘सरयू’ नदी के उत्तरी किनारे से 9 कि0मी0 उत्तर एक प्रसिद्ध गाँव । हिन्दू तीर्थ स्थल।
देश – भारतवर्ष (INDIA)
राज्य – उत्तर प्रदेश
जिला – देवरिया, तहसील-पुलिस स्टेशन-बरहज बाजार
ऊँचाई – 68 मीटर (223 फीट) 26.6 डिग्री उत्तरी अक्षांष 183.79 डिग्री पूर्वी देषान्तर।
भाषा– प्रचलित हिन्दी, अवधी-भोजपुरी।
समय मण्डल भारतीय मानक समय (यूटीसी 5ः30)
पिन कोड 274601
समीपस्थ दर्शनीय–
1. माँ सिद्धेश्वरी (दुर्गा) मन्दिर। (सर्वसिद्धा महालक्ष्मी)
2. दीव्य-भव्य-देवी अमृत सरोवर।
3. अतिथि भवन
4. यज्ञशाला मण्डप,
5. सभा मंच
अन्य दर्शनीय स्थलः-
1. देवरिया-बरहज मार्ग स्थित-(बारीपुर) नारायण मन्दिर संकटमोचन हनुमान मन्दिर।
2. बरहज के निकट-मोहांव (सर्वसिद्धा महाकाली मन्दिर)
3. करूअना-तिलौली के बीच अमाँव सरोवर के पष्चिम तट पर (सर्वसिद्धा महा सरस्वती काली मन्दिर)
4. तिलौली-अमांव के बीच-माँ सरयू से संलग्न अमाँंव का ताल।
5. बाबा इन्द्रमणि मन्दिर-टीकर
6. सिद्धेष्वर षिव बाबा बौद्धनाथ मन्दिर-गड़ौना
संक्षिप्त इतिहास– आदि नारायण के नाभिकमल से प्रजापिता ब्रह्मा।
ब्रह्मा से 10 मानस पुत्र में प्रजापति दक्ष। योनिज सृष्टि के हेतु आदि मानव सवाम्भुव मनुषतरूपा। मनुषतरूपा की कन्या प्रसूती का विवाह दक्ष प्रजापति ने एक कन्या ‘स्वाहा’ का विवाह अग्निदेव से। दूसरी ‘स्वधा’ का विवाह पितृ गणों से और तीसरी ‘‘सती’’ का विवाह भगवान् शिव से किया। 13 अन्य कन्याओं का विवाह अकेले धर्म से कर दिया।
श्रीमद्भागवत महापुराण– ‘विष्वसृज’ नामक यज्ञ में प्रजापतिदक्ष और शिव का मनो मालिन्य हो गया।
पुरा विष्वसृजां सत्रे समेता परमर्षय।
तथामरगणाः सर्वे सानुगा मुनयोग्नयः।। भा0-4-2-4।।
‘बृहस्पतिसव’ नामक यज्ञ में दक्ष ने शिव और सती को निमन्त्रण नहीं भेजा। शिव के मना करने के बावजूद ‘‘सती’’ पिता के यज्ञ में गई। स्वयं को दक्ष द्वारा अनादर किये जाने व यज्ञ में शिव का कहीं स्थान न होने से अपमान के कारण ‘सती’ सती हो गयीं-सद्यः प्रजज्वाल समाधिजाग्निना।।4-4-27 ।।भागवत।। शिव प्रेरित वीरभद्र नें यज्ञ विध्वंस कर दिया।
ब्रह्मादि देवता भगवान् शिव के पास क्षमा याचना को गये। शिव की कृपा से दक्ष यज्ञ पूर्ण हुआ।
तन्त्र-चूणामणि आदि ग्रन्थों के अनुसार– यज्ञ पूर्ति के समय सभी देवों के साथ भगवान शिव भी उपस्थित रहे। उसी समय सबके सम्मुख भगवान् (सिद्धेष्वर) को शिवा-संती (सिद्धेश्वरी) की प्राणषून्य शरीर तपाये हुये कांचन के समान देदीत्यमान रूप में दिखाई पड़ी। भगवान् भोलेनाथ मोहाभिभूत हो उठे। उस शती-सिद्धेश्वरी के शव को कन्धे पर उठा लिये और विक्षिप्त होकर इधर-उधर भागने लगे।
शिव की यह दशा देख सभी देवगण और माता लक्ष्मी ने नारायण से इससे मुक्ति की प्रार्थना की है। श्रीहरि विष्णु अपने सुदर्षन चक्र से देवी के अंगों वस्त्रों आभूषणों को छिन्न करना (काटना) आरम्भ किया सिद्धेष्वर षिव चलते रहें। देवी के अंग, आभूषण आदि कट-कटकर गिरते रहें। सिद्धेश्वरी के अंग-आभूषण जहाँ-जहाँ गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ की स्थापना हुई।
देवी भागवत के अनुसार 108, तन्त्र-चूणामणि-52, देवी गीता 72, देवीपुराण 51 षक्ति पीठों का वर्णन है।
ग्राम तिलौली में माँ सिद्धेश्वरी का आज संवत् 2079, सन 2022 से लगभग 461 वर्ष पूर्व-देवरिया जनपद मुख्यालय से 28 किमी0 दक्षिण पूर्व, लोकपावनी माँ सरयू से 9 किमी0 उत्तरी तट पर वर्तमान तिलौली, में निवास करने के लिए-
ऋषि शाण्डिल्य के वंशज आये-नारायण से ब्रहमाजी-से मरीचि से कश्यप से असित असित से देवल। देवल ने यज्ञाग्नि से एक पुत्र उत्पन्न किया जिसका नाम रखा-‘‘शाण्डिल्य’’। ये महर्षि शाण्डिल्य-भक्ति सूत्र, शाण्डिल्योपनिषद छान्दोग्योपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद के प्रमाणिक पुरूष है। ‘महाभारत’ के ‘अनुशासन’ पर्व 137/22 व 65/19 में भी इस महाविभूति का वर्णन है। हेमाद्रि के लक्षण-प्रकाश ग्रन्थ मे शाण्डिल्य को आयुर्वेदाचार्य कहा गया है। महर्षि शाण्डिल्य प्रणीत ‘गृहसूत्र’ और ‘स्मृति ग्रन्थ भी है। ये युगपुरूष-
त्रेतायुग में- राजा दिलीप के आचार्य/पुरोहित रहे है।
द्वापर युग में- बाबा नन्द के कुल पुरोहित रहे है।
कलियुग- राजा जनमेजय के पुत्र शतानीक के यज्ञ को पूर्ण कराने वाले रहे है।
महर्षि शाण्डिल्य के गोत्रज- तिवारी, त्रिपाठी, शर्मा, मिश्रा, गोस्वामी मे भी पाये जाते है।
‘सरयूपारीण ब्राहमण वंशावली’ व सामवेदीय ब्राहमण वंश परम्परा में ऋषि शाण्डिल्य के 12 पुत्रों के 12 गॉवों मे बसने की चर्चा है-
1. कटियारी 2. पिण्डी 3. सोहगौरा 4. सरयां 5. श्रीजम 6. धतुरा 7. अतरौरा, 8. बगराइच, 9. बलुआ 10. भुगिया 11. उनवलिया 12. लोनापार
श्रीमद् भागत महापुराण के माहत्म्य वर्णन में- श्री स्कन्ध महापुराण के वैष्णव खण्ड से उद्धृत’’ शाण्डिल्योपदिष्ट व्रजभूमि माहत्म्य वर्णन ’’नामक अध्याय आये है। जिनमें भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र अनिरूद्वनन्दन ‘‘वज्रनाभ’’ को महर्षि शाण्डिल्य व्रजभूमि का माहत्म्य और विलुप्त प्राय मथुरा मण्डल व व्रजमण्डल के प्रमुख स्थानो को पुनः बसाये जाने को प्रेरित करते है। शाण्डिल्य उबाच- श्रृणुतं दत्तचितौ में रहस्यं व्रजभूमिजम्। व्रजनं व्याप्तिरित्युक्त्वा व्यापनाद् व्रज उच्यते।।
कटियारी– महर्षि शाण्डिल्य के एक पुत्र के वंशज प्रारम्भ में यहां निवास किये थे-जिनमें से संवत 1618 में भर्गशाण्डिल्य व संवत 1621 में गर्ग शाण्डिल्य दोनो भाई अपने कुछ मित्रों व शिष्यों के साथ वर्तमान ‘तिलौली’ गॉव में आये। उन दोनो भाइयों को यह स्थान-‘राम कृष्ण’ के ‘वृन्दावन’ की तरह रमणीक लगा वृन्दावनं गोवर्धनं यमुना पुलिनानि च। वीक्ष्यासीदुत्मा प्रीती राममाधवयोर्नृप।। भा0-10-9-361 और यहां निवास बनाने का मन बना लिया।
तत्कालीन आवश्यकता जल प्रबन्धन की थी अतः कुॅआ तथा एक सरोवर (पोखरा) बनाने का निर्णय लिया।
कुआँ जो अब अस्तित्व मे नहीं रहा। वर्तमान लोगों ने उसे देखा था। वह स्व0 पौहरीशरण-रामनरेश व गोरखनाथ जी के घरों/दरवाजों के बीच में रहा था। कृषि कार्य, स्नानादि व पशुपालन हेतु सरोवर (पोखरा) निर्माण किया जाने लगा।
विभिन्न जाति-वर्ग के लोगों के साथ श्रमदान व श्रमजीवी श्रमिकों के सहारे सरोवर निर्माण चलता रहा। सरोवर का सम्बन्ध ‘अमाँव के ताल’ से तथा अभाव के ताल का सम्बन्ध परम पावनी नदी ‘सरयू’ से रहा है।
सरोवर निर्माण कार्य अनवरत चलता रहा। 5वें वर्ष खुदाई के दौरान एक महद् आश्चर्य मयी घटना घटी। खुदाई करते समय गोलोकवासी गर्गशाडिल्य जी के सम्मुख एक दीव्य प्रकाश पुंज दिखा- आँखे चकाचौंध हो गयी। आँखों पर हाथ लगाकर देखा यह कोई अद्भुत वस्तु है जो जाज्वल्य मान है। हर्ष व विस्मय के साथ गर्ग जी ने सभी को समीप बुलाया-स्वच्छ जल मगाया बार-बार प्रच्छलन किया-शीतल होने व स्वच्छ हो जाने के बाद ज्ञात हुआ कि यह कोई दिव्य वस्तु है। (शरीर का कटा हुआ भाग है)
परन्तु यह इतनी गहराई में कैसे आया? प्रकाशित हो रहा? अनेक अनबुझे प्रश्न उठे। इसके लक्षण क्या-क्या हो सकते हैं? हमें आगे क्या करना चाहिए?
इन विचारों से सरोवर निर्माण रूक गया। उस दीव्य वस्तु का रहस्य जानने के लिये किसी सिद्ध-सन्त सन्यासी मुनि की तलाश होने लगी। अनेक प्रकार से विचार के बाद यह निर्णय हुआ कि आज महाराष्ट्र में एक मराठी सन्त ‘‘एकनाथ- (सन 1533 से 1599) तद्नुसार विक्रमसंवत 1590 से 1656) की कीर्ति कौमुदी चहूं ओर फैल रही है। चाहे जैसे भी वस्तु के साथ उनके समीप जाया जाय।
कठिन था उनसे मिलना। यातायात के साधनों का सर्वथा अभाव था। ‘दृढ़ निश्चय से द्विधा के वेणियाँ कट जाती हैं’ गर्ग शाण्डिल्य जी ने संवत 1626 में ‘‘सन्त एकनाथ’’ जी से मिलने के लिए पैदल ही प्रस्थान कर दिया। कठिन श्रम के बाद दो वर्षो बाद संवत 1629 में उनकी भेंट सन्त एकनाथ से हुई।
प्रातः काल का समय था। अनेक प्रान्तों से दूर-दूर से भक्तगण सन्त-शिरोमणि के दर्शनार्थ आये हुए थे। भाषायी समस्या भी प्रबल थी। ?
‘‘भावों से भाषा की अभिव्यक्ति सरल हो जाती है।’’ युग पुरूष ने एक हिन्दी भाषी शिष्य को गर्ग शाण्डिल्य के समीप भेजा। उस द्विभाषिये शिष्य ने गर्गशाण्डिल्य जी से सारा वृतान्त जाना और सन्त एकनाथ जी को बतलाया। तथा उनके द्वारा ले जाई गई वस्तु एकनाथ जी को दिया।
सन्तश्री एक नाथ जी ने उस वस्तु को आदर पूर्वक अपने हाथों मे लिया और सबके देखते-देखते ध्यान मग्न हो गये। वहॉ उपस्थित सभी लोग सन्त श्री को निर्निमेषनयनों से निहारते रहे। समाधि से जागते ही एकनाथ जी ने उस दीव्य वस्तु को हृदय से लगाया फिर माथे से लगाकर प्रणाम किया ऊँचे आसन पर रखकर उसकी पूजा की।
गर्गशाण्डिल्य सहित वहाँ उपस्थित सभी लोगों को सम्बोधित करते हुए श्रीएकनाथ जी बोलेः– जेहवा भगवान भूत भवन भोलेनाथ सिद्धेश्वरी सतीचा मृतदेह खाद्यावर धेऊन भारत भूमि प्रवास करत होते। भगवान् विष्णूच्या सूदर्शन चक्राने सतीचे अवयव-दागिने-वस्ते जागो जागी पडूलागी होती।
हिन्दी- जब भगवान भूतभवन भोलेनाथ सिद्धेश्वरी सती के शव को कन्धे पर लेकर भारत भूमि पर भ्रमण कर रहे थे। भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से छिन्न होकर सती के अंग आभूषण-वस्त्र स्थान-स्थान पर गिर रहे थे।
जेहवा शंकर जी गोदावरीच्या काठावर पहोचले तेहवा भगवती सतीचा विकृत दीव्यांग चिबुक (हनुवटी) जमिनीवर पड़ला।
हिन्दी- जब भगवान शंकर गोदावरी नदी के किनारे पहुंचे तब भगवती सती का छिन्न दीव्यांग चिबुक (ठोड़ी) पृथ्वी पर गिर गया।
दीव्य योगाने त्या अपंगाला धेऊन एक गरूण पक्षी (चील) आकाशात उड़ाला। त्याला पाहत असतानाच हाक पक्षी (बाज) त्याच्या भागे लागला। गरूण पक्षी त्याच्या बरोबर पलत रहीला। गरूण पक्षी त्यच्या पाठलाग करत रहीला। इकडे तिकडे हिंडत फिरत राप्ती आणि घाघरा नदीच्या संगम पासून तीन कोस उत्तरेला दोन्ही पक्षी पहुचले।
हिन्दी- दैव योग से उस दीव्यांग को एक चील पक्षी लेकर आकाश में उड़चला। वही देखरहा बाज पक्षी उसका पीछा किया। चील पक्षी उसे लेकर भागता रहा। बाज पक्षी उसका पीछा करता रहा। इधर-उधर भागते दोनो पक्षी राप्ती और घाघरा नदी के संगम से तीन कोस उत्तर जा पहुँचे।
दीव्यांग हा मांसाचा तुकड़ा समजून दोन्ही पक्षी आकाशात भिडले। दरभया़न गरूण पक्ष्याच्या पंजेतून मुक्त झाल्यानंतर तो अपंग खाली पड़ला आणि तलावता बुडाला। दोन्ही पक्षी निराश होला परतले।
हिन्दी- उस दिव्यांग को मांस का टुकड़ा समझकर दोनो पक्षी आकाश में आपस में भिड़ गये। इसी बीच चील के पंजे से छूटकर दीब्यांग नीचे गिर पड़ा और सरोवर में डूबगया दोनो ही पक्षी हताश होकर लौट गये।
हे गर्ग शाण्डिल्य! हा तोच सिद्धेश्वरीचा दीव्यांग आहे जिला तू माझयाकड़े धेऊन आला आहेस। या चिबुकाच्या (हनुवाटीच्या) खालच्या भागात काल्या तिलाच्या पंक्ति श्रृंगाराच्या स्वरूपतात वनवल्या जातातज्या चुबुकाचे सौन्दर्य बाढ़वतात। कहणून मो आता माझाया प्रिय शिष्याच्या हस्ते नाशिकल। पाठवत आहे। जिथे सिद्धेश्वरी दुर्गा भ्रामरी नावाच्या मन्दिराची स्थापना केली जाईल।
हिन्दी- हे गर्ग शाण्डिल्य। यह वही सिद्धेश्वरी का दीव्यांग है जिसे आप लेकर मेरे पास आये हो। इस चिबुक (ठोड़ी) के निचले भाग में काले तिल की कतारे श्रृंगार रूप में बनी हुई है। जो चिबुक के सौन्दर्य को बढ़ा रही है।
मैं उसे अभी अपने प्रिय शिष्य के हाथों नाशिक भेज रहा हूँ जहाँ सिद्धेश्वरी दुर्गा का भ्रामरी नामक मन्दिर प्रतिष्ठित होगा।
गर्ग-शाण्डिल्य ने पूछा- भगवन्! मेरे लिये आपका आशीर्वादरूप आदेश क्या है। एक नाथ जी बोलेः- हे गर्ण शाण्डिल्य। तू धन्य आहेस। तुमच्या कुलातील भविष्यत् लोकत्या तलावाच्या दक्षिण तीरावर माँ सिद्धेश्वरी दुर्गाचे भव्य मंदिर बांधतील। ज्या तलावतून सती सिद्धेश्वरी दुर्गेचा दीव्यांग बाहरे काठण्यात आला आहे। ता तलावाचे नाव भविष्यात देवी सरोवर, असेल।
हिन्दी- हे गर्ग शाण्डिल्य! आप धन्य हैं। तुम्हारे कुल के लोग भविष्य में इस सरोवर के दक्षिण तट पर माँ सिद्धेश्वरी का भव्य मन्दिर बनवायेंगे। जिस सरोवर से सती सिद्धेश्वरी का यह दीव्यांग निकला है। उस सरोवर का नाम भविष्य में ‘देवी सरोवर’ होगा।
गर्ग शाण्डिल्य ने पूछाः– हमारे गांव का नाम क्या होगा?
सन्त एकनाथ जी मुस्कराये और बोलेः- हे गर्ग शाण्डिल्य! देवीच्या हनुवटी खाली काल्या तिलाच्या ओली (अवलि) श्रृंगाराच्या रूपात बनवल्या जातात। त्यामूले तुमच्या गवाचे नाव तील$आवलि म्हणजेच=तिलवली असे होईल।
हिन्दी- हे गर्ग शाण्डिल्य! देवी के ठोडी के नीचे काले तिल की कतारें (अवलि) श्रृंगार रूप में बनी हुई हैं अतः तुम्हारे गांव का नाम- तिल$अवलि अर्थात ‘तिलवली’ होगा।
गर्ग शाण्डिल्य ने सन्त एकनाथ जी को बारंबार प्रणाम किया और उनका कृपा प्रसाद शिरोधार्य कर, उनके अनुग्रह का स्मरण करते वापस चलने को तत्पर हुए। उसी क्षण सन्त ने कहा-हे गर्ग शाण्डिल्य। नंतर, आपल्या स्वतःच्या कुलाच्या तपश्चर्येव प्रसन्न होऊन, देवी मंदीरातील मूर्तिमध्ये सिद्वीचौ शक्ति ओतते।
हिन्दी- हे गर्ग शाण्डिल्य। कालांतर में तुम्हारे ही कुल की तपस्या से प्रसन्न होकर देवी मन्दिर की मूर्ति में सिद्धि-शक्ति का संचार करेंगी।
गर्ग शाण्डिल्य जी ने इसे सन्त एकनाथ जी का परम् अनुग्रह माना और उन्हे कृतज्ञता ज्ञापित किया। उनसे वापस चलने की अनुमति मॉगी और द्विभाषिये से आग्रहपूर्वक निवेदन कियाः- आपने जो सन्त एकनाथ जी के वचनो को कागज पर लिखा है-कृपा कर वह कागज मुझे प्रसाद रूप मे देवें जिन्हे मै पान्थ रूप स्वीकार कर जीवन मार्ग पर भी चलता रहूंगा।
द्विभाषिये ने सहर्ष उन पन्नों को शाडिल्य जी को समर्पित किया। गर्ग जी उन पक्तियों को बार-बार पढ़ते हुए विक्रम संवत 1631 में अपने गांव पहुॅचे। अपना सारा यात्रा वृतान्त गांव के सभी लोगों को एक एक करके कह सुनाया। सभी लोग गर्ग जी सहित अपने को भी धन्य व बड़भागी माने। गर्ग जी की बार-बार प्रसंशा किया। गर्ग शाण्डिल्य जी ने अपनी धर्म पत्नी ‘‘शारदा’’ को बारंबार ताकीद किया-‘देवी! इस घटना को स्वयं आप कभी नहीं भूलेंगी और अपने बच्चों को बार-बार कह-कहकर याद दिलाती रहेंगी।
सो यह सारा वृतान्त दास कृष्ण शंकर शाण्डिल्य को श्रवण श्रुत परम्परया गोलोक वासिनी दादी माँ ‘‘गेंदा देवी’’ के मुख से प्राप्त हुआ। गर्ग शाण्डिल्य के सन्त एकनाथ जी के समीप जाने पर उनके भाई श्री भर्ग शाण्डिल्य जी वापस ‘कटियारी’ चले गये। परन्तु गर्ग शाण्डिल्य जी की पत्नी ‘शारदा’ अन्य सभी को स्नेह सौहार्द-साहस के साथ एक-जुट बनाये रखी।
पिता के अनुयायी पुत्र चन्द्र शाण्डिल्य का जन्म संवत् 1646 में हुआ। उन्हे पिता श्री के गोलोक सिधारने के बाद उनको दैवीय आपदाओं का सामना करना पड़ा अतः संवत 1691 में वे ‘‘सन्त तुकाराम’’ जी से मिले उनके परम भक्त हो गये। संसार से उनका मन विरक्त होने लगा। उनकी 48 वर्ष की अवस्था मे संवत् 1694 में पुत्र शेखर शाण्डिल्य ने जन्म लिया। जो प्रारम्भ से ही सन्यास की ओर उन्मुख रहे थे पर पितृ-भक्ति के कारण उन्हे अल्प आयु में विवाह करना पड़ा। पिता की अन्तिम इच्छा का अनादर न कर सके।
शेखर शाण्डिल्य का विवाह उनकी माता जी ने कम उम्र में ही करा दिया। उनके कई बच्चे उत्पन्न हुए पर वे जीवित नही रह पाते। अतः माता श्री की प्रेरणा से शेखर शाण्डिल्य सन्त तुकाराम जी के प्रिय शिष्य सन्त से मिले।
संवत 1744 में शेखर शाण्डिल्य के पुत्र हुए ‘‘साधू’’ और 1745 में ‘‘संत’’ इन बच्चों का नामकरण बच्चों की ‘‘नानी’’ ने किया और नाम के आगे शाण्डिल्य लिखना-बोलना मिट गया। तिवारी जुड़ गया-साधू तिवारी सन्त तिवारी। ‘साधू’ के प्रथम पुत्र रामउग्रह का जन्म विक्रम संवत 1792 में हुआ जबकि उनके छोटे भाई नान्हूँ का जन्म 1794 में हुआ।
राम उग्रह की 11वें वर्ष में अकाल मृत्यु हो गयी। जो आज भी निवर्तमान प्रधान नवनाथ जी तिवारी के दरवाजे पर ब्रह्मस्वरूप स्थापित है। –‘सन्त’ के एक पुत्र हुए ‘कुन्ज बिहारी’ संवत 1775 में।
नान्हू का विवाह विक्रम संवत 1815 में हुआ जब वे 21 वर्ष के थे। उसी वर्ष भयंकर जल प्लावन हुआ। माँ सरयू का जल ग्राम कटियारी को तीन तरफ से डुबो दिया था। अभाँव के ताल के तरफ से सरयू का जल तिलौली के भी कृषि योग्य चौथाई भाग की भूमि को डुबो दिया था। परन्तु यहाँ फसल अच्छी हुई। उँचाई की भूमि पर ज्वार, बाजरा, मक्का, साँबा, कोदो, टॉगुन आदि के साथ अरहर की फसल भी अच्छी हुई।
अतः संवत 1816 में भर्ग शण्डिल्य के प्रपौत्र ‘भागीरथी’ जो नान्हू और कुन्ज बिहारी के पितृव्य लगते थे वे भी वाया भरहाँ तिलौली आये। अब सभी लोग सामंजस्य-सौहार्द के साथ ग्रामवासियों से मिलकर रहने लगे।
इस प्रकार ग्राम तिलौली में श्री नान्हू तिवारी श्री कुण्ज बिहारी व श्री भागीरथी तिवारी तीन ब्राहमण परिवार के वंश के लोग आज भी है। जैसा कि वंशावली चित्र में इंगित है। इन तीनो लोगों ने समय-समय पर अन्य जाति/धर्म के लोगों को साथ में अपने गांव में बसाया जिनके वंशवृक्ष चित्र संलग्न है।
माँ सिद्धेश्वरी का मन्दिरः- संवत-1953 में महाकुम्भ के अवसर पर ग्रामवासी आदरणीय श्री कवलेश्वर तिवारी, श्री त्रिवेणी तिवारी तथा अन्य ग्रामवासी अन्य विरादरी के लोग ‘‘ललका बाबू’’ उर्फ शिवपूजन तिवारी व ‘‘नूनू’’ उर्फ श्री विन्देश्वरी तिवारी के प्रतिनिधित्व में प्रयाग गये। कुम्भ स्नान किया और तत्कालीन कल्पवासी सन्तों के दर्शन किये। देवरहा बाबा उन दिनो दीव्य सन्त थे सभी लोगों में उनके दीव्य दर्शन किये। बाबा को इन ‘‘शाण्डिल्य’’ वंशजों का अपने मण्च मईल के समीपस्थ होना जानकर बड़ी ही प्रसन्नता हुई और सभी को भगवती विंध्यवासिनी के दर्शनहित प्रेरित किया।
सभी लोग दोगुना चौगुना उत्साह के साथ भगवती के दर्शन के लिये। अष्टभुजी की चढ़ाई को ख्याल में रखकर सभी लोग एक राय के साथ विन्ध्याचल की तलहटी में डेरा (पड़ाव) डाला भोजन बनाये खाये और सो गये।
निशावसान के समय अखिलेश्वरी भगवती सिद्धेश्वरी अपने भक्तों पर कृपा करने हेतु प्रकट हुई। शिवपूजन तिवारी व विन्ध्येश्वरी तिवारी को जगाया तथा कहा ‘‘तुम सभी की साधना पूर्ण हुई। मेरी मूर्तियों के दर्शन करो और घर जाओ। अपने बच्चों से कहना ‘भविष्य में देवी सरोवर (पोखरा) के दक्षिण तट पर मेरा भव्य मन्दिर बनवा देंगे। ‘‘यह कहकर देवी अर्न्तधान हो गयी। ‘‘दोनो जनों ने सबके जागने पर यह सारा वृतान्त सभी को बताया, सभी प्रसन्न हुये।
हर-हराती हुई शताब्दी व्यतीत हो गई/पूर्वजों द्वारा बताई गयी स्मृति, विस्मृति की खाई मे डूब गयी। पर माँ सिद्धेश्वरी ने अपनी ममता बनाये रखा। सन 1968 में स्वर्गीय सदानन्द तिवारी पुत्र स्व0 रामनारायण तिवारी ने लोगों से दस-बीस पैसे करके चन्दा जुटाया अपने समवयस्को को साथ लिया और बिहार राज्य के सीवान जिले से माँ की मूर्ति लाकर धूम-धाम से पूजन-अर्चन आरम्भ किया। अनेक परिवर्तन-परिवर्धन-संशोधन के साथ तत्कालीन सुधी जनों ने माँ की मूर्ति का विसर्जन परम पावनी माँ सरयू के प्रवाह मे न करके देवी सरोवर (पोखरे) मे करने का निर्णय लिया और क्षेत्रीय मेला लगाया जाने लगा। क्षेत्रीय लोगों का अपूर्व सहयोग रहा है। सभी गाँवों से मिलकर सैकड़ो मूर्तियाँ देवी सरोवर मे विसर्जनार्थ आने लगीं। और मेला नित्य-निरन्तर बढ़ता हुआ आज एक परम प्रसंशनीय मेले के रूप में आयोजित हो रहा है। उन दिनों मेले मे (सरोवर मे) विसर्जनार्थ आने वाली मूर्तियों मे से दीव्यतम मूर्ति को पुरस्कार देने की परम्परा चल पड़ी थी पाँच गाँवों के पण्च मुकर्रर किये जाते उनके निर्णय पर मूर्ति को रखने वाले भक्तों को पुरस्कृत कर शील्ड (स्मृति चिन्ह) दिया जाने लगा था।
सन 1988 मे मेले में शील्ड के लिए लिये गये निर्णय पर कतिपय लोगों द्वारा निर्णायक मण्डल के निर्णय में सन्देह जनाया गया।
अतः क्षेत्र से मेले मे आये हुए प्रति गांव के गणमान्य जनों को आग्रह पूर्वक रोका गया और सबका परामर्श लिया गया। सभी लोगों ने मेडेल परम्परा बन्द करने तथा एक भव्य दुर्गा मन्दिर बनाने का प्रस्ताव किया। वहां उपस्थित सभी ने करतल ध्वनि से प्रस्ताव का समर्थन भी किया। उसी क्षण तत्कालीन ग्राम प्रधान श्री नवनाथ तिवारी को रूपये एक सौ रू0 100/- श्री नन्दलाल तिवारी पुत्र स्व0 जगत नारायण तिवारी व रू0 100/- शिवनरायन दूबे प्रबन्धक बाबा इन्द्रमणी उ0मा0वि0 टीकर ने भी दे दिया। श्री नवनाथ जी के लिये ये रूप्ये प्रेरणा-जागृति-माँ सिद्धेश्वरी दुर्गा की कृपा के श्रोत बने। जो उन्होने ग्राम-क्षेत्र जनपद-प्रदेश-देश के लोगों का सहयोग लेना आरम्भ कर दिया।
मन्दिर का शिलान्यासः- विक्रम संवत 2045 फाल्गुन कृष्ण 6/7 दिन चन्द्रवार तद्नुसार 27 फरवरी 1989 को तत्कालीन ब्लाक प्रमुख, ब्लाक भलुअनी देवरिया श्री रूदल सिंह आत्मज श्री युगल किशोर सिंह निवासी ग्राम सोनाड़ी की गरिमामयी उपस्थिति में श्री नवनाथ तिवारी पुत्र जलेश्वर नाथ तिवारी के हाथों हुआ।
तभी से मन्दिर निर्माण का शिल-शिला आरम्भ हुआ। गाँव के प्रत्येक लोगों ने अपनी श्रद्धा/-सामर्थ्य के अनुसार सहयोग किया और आज भी सहयोग कर रहे है। शिला लेख पर अंकितजनों के तथा गुप्तदान दाताओं के सक्रिय सहयोग से भव्य मन्दिर 15 वर्ष 11 माह 21 दिन में बनकर तैयार हुआ।
मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठाः- विक्रम सवंत 2061 माघ शुक्ल 10/11 दिन शुक्रवार’ तद्नुसार 18 फरवरी 2005 को माँ सिद्धेश्वरी की प्राण प्रतिष्ठा सर्वविधि दक्ष विद्वान आचार्यो ने विधि-विधान से सम्पन्न किया। भव्य यज्ञ का आयोजन हुआ। जीवन्त रामलीला मंचन का दर्शन हुआ। सुप्रसिद्ध विद्वान कथाकारों ने श्रीमद् भागवत कथा व श्रीराम कथा का अमृत रस पान कराया। सारा आयोजन दीव्यतम ढंग से परिपूर्ण हुआ।
स्थान के दिवस से माता जी के प्रसाद भोग आरती हेतु (मिश्री किसमिस-अगरबत्ती, कपूर के लिए) रूपये श्री रविशंकर तिवारी पुत्र श्री लक्ष्मी नारायण तिवारी ने प्रधान श्री नवनाथ को देना आरम्भ किया जो आज भी अनवरत रूप से देते आ रहे है।
प्रतिदिन-माह-वर्षो मे गाँव-क्षेत्र के भक्तों की अटूट श्रद्धा-विश्वास और लगन के परिणाम स्वरूप, त्यागी व समर्पित व्यवस्थापक जनों की अप्रतिम निष्ठा, ईमानदारी से भव्य यज्ञशाला, संग्रह कक्ष अतिथि भवन का निर्माण मन्दिर में टाइल्स लगा जेनरेटर, इनवर्टर, लाउडिस्पीकर, पंखे, कुर्सियाँ, यज्ञ-भोज भण्डारे के बड़े-बड़े बर्तनो की व्यवस्था सम्पन्न हुई। माता जी के आभूषण भी लोगों ने दान रूपये दिये है। पं0 अबिनाश कुमार त्रिपाठी पुत्र श्री अवधनाथ त्रिपाठी के सक्रिय समर्पित प्रयास से सन 2019 से स्थापना दिवस (18 फरवरी) को दीपोत्सव समारोह पूर्वक मनाया जाने लगा। 2021 में शतचण्डी-यज्ञ का सफलतम आयोजन हुआ कोविड 19 से त्रस्त विश्व मानव कल्याणार्थ सप्तसती पाठ मन्त्र जाप सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। यज्ञ की सम्पन्नता भगवती सिद्धेश्वरी की महती अनुकम्पा का परिणाम था। गांव के प्रत्येक नागरिकों का भरपूर सहयोग रहा। प्रत्येक जाति/धर्म के आवाल वृद्ध-बनिता-युवा पुरूषों का सहयोग शलाध्य रहा।
माँ सिद्धेश्वरी का सिद्धिमन्त्रः-
ऊ ऐं हीं श्री श्री महाकाली सिद्धेश्वरी स्वाहा!!!!सिद्धेश्वरी
!!हरिः ऊँ तत्सत!!
संग्रहकर्ता-
आचार्य कृष्ण शंकर तिवारी शाण्डिल्य
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